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स सु॒ष्टुभा॒ स स्तु॒भा स॒प्त विप्रैः॑ स्व॒रेणाद्रिं॑ स्व॒र्यो॒३॒॑ नव॑ग्वैः। स॒र॒ण्युभिः॑ फलि॒गमि॑न्द्र शक्र व॒लं रवे॑ण दरयो॒ दश॑ग्वैः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa suṣṭubhā sa stubhā sapta vipraiḥ svareṇādriṁ svaryo navagvaiḥ | saraṇyubhiḥ phaligam indra śakra valaṁ raveṇa darayo daśagvaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। सु॒ऽस्तुभा॑। सः। स्तु॒भा। स॒प्त। विप्रैः॑। स्व॒रेण॑। अद्रि॑म्। स्व॒र्यः॑। नव॑ऽग्वैः। स॒र॒ण्युऽभिः॑। फ॒लि॒ऽगम्। इ॒न्द्र॒। श॒क्र॒। व॒लम्। रवे॑ण। द॒र॒यः॒। दश॑ऽग्वैः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:62» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सः) वह (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (शक्र) शक्ति को प्राप्त करनेवाले सभाध्यक्ष ! जो आप (नवग्वैः) नवों से प्राप्त हुई गति वा (दशग्वैः) दश दिशाओं में जाने (सरण्युभिः) सब शास्त्रों में विज्ञान करनेवाली गतियों से युक्त (विप्रैः) बुद्धिमान् विद्वानों के साथ जैसे सूर्य्य (सुष्टुभा) उत्तम द्रव्य, गुण और क्रियाओं के स्थिर करने वा (स्तुभा) धारण करनेवाले (रवेण) शस्त्रों के शब्द से जैसे सूर्य (सप्त) सात संख्यावाले स्वरों के मध्य में वर्त्तमान (स्वरेण) उदात्तादि वा षड्जादि स्वर से (अद्रिम्) बलयुक्त (फलिगम्) मेघ का हनन करता है, वैसे शत्रुओं को (दरयः) विदारण करते हो (सः) आप हम लोगों से (स्वर्यः) स्तुति करने योग्य हो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली उत्तम-उत्तम गुणों से वर्त्तमान हुई जीवन के हेतु मेघ के उत्पन्न करने आदि कार्यों को सिद्ध करती है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि अत्यन्त उत्तम-उत्तम विद्या बल से युक्त पुरुषों के साथ वर्त्त के विद्यारूपी न्याय के प्रकाश से अन्याय वा दुष्टों का निवारण कर चक्रवर्त्ति राज्य का पालन करें ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे स इन्द्र शक्र सभाद्यध्यक्ष ! यस्त्वं नवग्वैर्दशग्वैः सरण्युभिर्विप्रैः सुष्टुभा स्तुभा रवेण सप्त यथा सविता सप्तानां मध्ये वर्त्तमानेन स्वरेणाद्रिं बलं फलिगं हन्ति तथाऽरीन् दरयो विदारयः स त्वं स्वर्यः स्तुत्योऽसि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) इन्द्रः (सुष्टुभा) सुष्ठु द्रव्यगुणक्रियास्थिरकारकेण (सः) उक्तार्थः (स्तुभा) स्तोभते स्थिरीकरोति येन तेन (सप्त) सप्तसंख्याकानामुदात्तादीनां षड्जादीनां स्वराणां वा मध्यस्थेन केनचित् (विप्रैः) मेधाविभिः। विविधान् पदार्थान् प्रान्ति तैः किरणैर्वा (स्वरेण) महाशब्देन (अद्रिम्) मेघम् (स्वर्य्यः) स्वरेषु साधुः (नवग्वैः) नवनीतगतिभिः। नवग्वा नवनीतगतयः। (निरु०११.११) अत्र नवोपपदाद् गमधातोर्बाहुलकादौणादिको ड्वप्रत्ययः। (सरण्युभिः) सर्वेषु शास्त्रेषु विज्ञानगतिभिः। अत्र सृयुवचि०। (उणा०३.८१) इति सूत्रेणान्युच् प्रत्ययः। (फलिगम्) फलीनां गमयितारं मेघम्। फलिग इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (शक्र) शक्तिमान् (बलम्) बलयुक्तं मेघम् (रवेण) विद्युतः शब्देन (दरयः) विदारय। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (दशग्वैः) ये रश्मयो दश दिशो गच्छन्ति तैः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्तनयित्नुः स्वैरुत्तमैर्गुणैर्वर्त्तमानः सन् जीवनहेतुं मेघोत्पत्त्यादिकं कार्य्यं साधयति, तथैव सभाद्यध्यक्षः परमोत्तमैर्विद्याबलयुक्तैः पुरुषैः सह वर्त्तमानेन विद्यान्यायप्रकाशेन सर्वमन्यायं प्रणाश्य दुष्टांश्च निवार्य्य चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशिष्यात् ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विद्युत आपल्या उत्तमोत्तम गुणांनी विद्यमान असलेल्या जीवनाचा हेतू असलेल्या मेघाला उत्पन्न करण्याचे कार्य सिद्ध करते. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनी उत्तमोत्तम विद्याबलाने युक्त पुरुषांच्या संगतीने विद्यारूपी न्यायप्रकाशाने अन्याय व दुष्टांचे निवारण करून चक्रवर्ती राज्याचे पालन करावे. ॥ ४ ॥